नटराज-उपाधि के रहस्यः-
किसी समय प्रदोष काल में जब देवगण रजतगिरि कैलास पर ’नटराज’ शिव के ताण्डव में सम्मिलित हुए और जगज्जननी आद्या श्रीगौरीजी रत्नसिंहासन पर बैठकर अपनी अध्यक्षता में ताण्डव कराने को तैयार हुई, ठीक उसी समय वहाँ श्रीनारदजी महाराज भी पहुँच गये और अपनी वीणा के साथ ताण्डव में सम्मिलित हुए। जद्नन्तर श्रीशिवजी ताण्डव नृत्य करने लगे , श्री सरस्वतीजी वीणा बजाने लगी, इन्द्र महाराज वंषी बजाने लगे और लक्ष्मीजी आगे-आगे गाने लगी, विष्णुभगवान् मुदण्ड बजाने लगे ब्रहा्राजी हाथ से ताल देने लगे और बचे हुए देवगण तथा गन्धर्व, यक्ष ,पन्नग, सिध्द,विद्याधर,अपसराऐं सभी चारों और स्तुति लीन हो गयें बडे ही आनन्द के साथ ताण्डव सम्पन्न हुआ। उस समय श्रीआद्या भगवती (महाकाली) पार्वतीजी परम प्रसन्न हुई ओर उन्होनें श्रीशिवजी (महाकाल) से पुछा कि आप क्या चाहते है ? आज बडा ही आनन्द हुआ। फिर सब देवो से, विशेषकर नारदजी से प्ररित होकर उन्होने यह वर माँगा कि हे देवी ! इस आनन्द को केवल हमीं लोग लेते है किन्तु पृथ्वीतल में एक ही नहीं , हजारों भक्त इस आनन्द से तथा नृत्य - दर्षन से वंचित रहते है, अत एव मृत्युलोक में भी जिस प्रकार मनुष्य इस आनन्द को प्राप्त करें ऐसा कीजिये, किन्तु मै अपने ताण्डव को समाप्त करूँगा और लास्य करूँगा। इस बात को सुनकर श्रीआद्या भुवनेष्वरी महाकाली ने एवमस्तु कहा और देवगणों से मनुष्य- अवतार लेने को कहा और स्वयं श्याम (आद्या महाकाली) श्यामसुन्दर का अवतार लेकर श्रीवृनदावनधाम में आयी ओर श्रीशिवजी(महाकाल) ने राधाजी का अवतार लेकर ब्रज में जन्म लिया और देव दुर्लभ रासमण्डल की आयोजना की और वही नटराज की उपाधि यहाँ श्यामसुन्दर को दी गयी।